ग़ज़ल 394 [57फ़]
1212---1122---1212---112/22
मचा के शोर मुझे चुप करा नहीं सकते
पहाड़ फूँक से ही तुम उड़ा नहीं सकते
ग़रूर है ये तुम्हारा , तमीज़ का परचम
दिखा के आँख मुझे तुम डरा नहीं सकते
नहीं वो पेड़ जो गमलों में, नरसरी में पले
वो शाख हैं कि हमें तुम झुका नहीं सकते ।
ये झूठ का जो पुलिंदा लिए हुए सर पे
पयाम सच का मेरे तुम दबा नहीं सकते
सवाल ये है कि सुनना न मानना है तुम्हें
दिमाग़ में जो तुम्हारे मिटा नहीं सकते ।
वो हार कर भी सबक कुछ न सीख पाया है
नहीं है सीखना जिसको सिखा नहीं सकते ।
जवाब सुन के भी वह सुन सका नहीं ’आनन’
जो कान बंद किए हो , सुना नहीं सकते।
-आनन्द.पाठक-
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