ग़ज़ल 404 [61-फ़]
2122---1212---22
बात बेपर की तुम उड़ाते हो
क्या हक़ीक़त है भूल जाते हो ।
आदमी हो कोई खुदा तो नहीं
धौंस किस पर किसे दिखाते हो ।
झूठ ही झूठ का तमाशा है
बारहा सच उसे बताते हो ।
खुद की जानिब भी देख लेते तुम
उँगलियाँ जब कभी उठाते हो ।
मंज़िलों की तुम्हें ख़बर ही नही
राहबर खुद को तुम बताते हो
हम चिरागाँ हैं हौसले वाले
इन हवाओं से क्या डराते हो
वो फ़रिश्ता तो है नहीं ’आनन’
बात क्यों उसकी मान जाते हो
-आनन्द.पाठक--
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