सोमवार, 8 जुलाई 2024

ग़ज़ल 395[ 58फ़] : उसे पता ही नहीं---


ग़ज़ल 395 [58फ़] 

1212---1122---1212---112/22


उसे पता ही नहीं क्या वो बोल जाता है

न सर, न पैर हो, बातें वही सुनाता  है ।


वो आइना पे ही इलजाम मढ़ के चल देता

अगर जो आइना कोई कहीं दिखाता  है ।


किसी के पीठ पे हो कर सवार पार हुआ

उसी को बाद में फिर शौक़ से डुबाता है ।


वो चन्द रोज़ हवा में उड़ा करेगा अभी

नई नई है मिली जीत यह दिखाता  है ।


उसे बहार में भी आ रही नज़र है खिज़ाँ

वो जानबूझ के भी सच नही बताता  है ।


ज़मीन पर है नहीं पाँव आजकल उसके

वो आसमाँ से हक़ीक़त न देख पाता है ।


हवा लगी है उसे बदगुमान की ’आनन’

किसी को अपने मुक़ाबिल नही लगाता है ।


-आनन्द.पाठक-

कोई टिप्पणी नहीं: