ग़ज़ल 218
221--2121---1221--212
तुमको न हो यक़ीन, मुझे तो यक़ीन है
तुम-सा ही कोइ दिल में निहाँ नाज़नीन है
तेरा हुनर कि ख़ाक से मुझको बना दिया
फिर यह ज़मीन तेरी कि मेरी ज़मीन है
जिस राह से जो उनकी कभी रहगुज़र रही
उस राह की महक अभी ताज़ातरीन है
फ़ुरसत नहीं मिली कि जो देखूँ मैं ज़िन्दगी
वरना तो हर लिहाज़ से लगती हसीन है
दीदार तो हुआ नही ,चर्चे बहुत सुने
सुनते हैं सब के दिल में वही इक मकीन है
फ़िरदौस की जो हूर हैं ,ज़ाहिद तुम्ही रखो
मेरा हसीन यार तो ख़ुद महज़बीन है
’आनन’ तमाम उम्र इसी बात में कटी
हर शय में वो ज़हूर कि पर्दानशीन है ?
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें