मंगलवार, 8 मार्च 2022

ग़ज़ल 220 : ्जुल्मात में मशाल जलाती रही

 

ग़ज़ल 220

221—2121—1221—212


जुल्मात में मशाल जलाती रही ग़ज़ल
हर दौर-ए-इन्क़लाब में गाती रही ग़ज़ल

पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको सुनाती रही ग़ज़ल
दुनिया के ग़म का बोझ उठाती रही ग़ज़ल
 
मायूसियों के दौर में कोई हो ग़मजदा
तारीक़ियों में राह दिखाती रही ग़ज़ल
 
ग़ंग-ओ-जमन की मौज सी लबरेज़ प्यार से
नफ़रत की आग दिल की बुझाती रही ग़ज़ल
 
आदाब-ए-ज़िंदगी कभी अरकान-ए-तर्बियत
तहज़ीब-ए-गुफ़्तगू भी सिखाती रही ग़ज़ल

दरबार में रही कभी ,घुँघरू में जा बसी
उतरी तो फिर अवाम पे छाती  रही ग़ज़ल
 
ख़ुशबू ज़बान की है हलावत लिए हुए
ग़ैरो को भी गले से लगाती रही ग़ज़ल
 
अल्फ़ाज़ बाँधने की ये जादूगरी नहीं
अन्दर में रूह तक कहीं जाती रही ग़ज़ल
 
’आनन’ ग़ज़ल की खूबियाँ क्या जानता नहीं ?
दो दिल की दूरियों को मिटाती रही ग़ज़ल।

-आनन्द.पाठक-
 
 

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