रविवार, 17 मई 2009

एक ग़ज़ल 02-V : प्यास मन की बढ़ाती रही मछलियाँ



ग़ज़ल 02--ओके

212---212---212---212

प्यास मन की बढ़ाती रहीं मछलियाँ
और अपनी  छुपाती रहीं मछलियाँ

जाल कितने मछेरों ने  फेंके इधर
फिर भी ख़ुद को बचाती रहीं मछलियाँ

किससे मिलने को आतुर रहीं उम्र भर
क्यों  मिलन-गीत गाती रहीं मछलियाँ

प्यास ’मीरा’ की हो या कि ’राधा’ की हो
 एक ही रंग  पाती रहीं मछलियाँ

दर्द किसको सुनाना था अपना उन्हें
दर्द किसको सुनाती रहीं मछलियाँ

जीना मरना कैसे  हमे इश्क़ में
इक तरीक़ा सिखाती रहीं मछलियाँ

तिश्नगी तू भी ’आनन’ जगा यूँ कि ज्यों
जल में रह कर भी प्यासी रहीं मछलियाँ

-आनन्द पाठक-

इस ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में 
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3 टिप्‍पणियां:

समय चक्र ने कहा…

" समुन्दर में मछलियाँ प्यासी और उदास हो ". बहुत ही बढ़िया कल्पना से लबरेज रचना

समय चक्र ने कहा…

" समुन्दर में मछलियाँ प्यासी और उदास हो ". बहुत ही बढ़िया कल्पना से लबरेज रचना

आनन्द पाठक ने कहा…

आदरणीय मिश्र जी
भाव सराहना के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
आप से प्रेरणा मिलती रहेगी

-आनन्द