ग़ज़ल 439 [13-जी]
1222---1222---1222---1222
जो राहें ख़ुद बनाते हैं , उन्हें क्या खौफ़, आफ़त क्या
मुजस्सम ख़ुद विरासत हैं, उधारी की विरासत क्या ।
पले हों ’रेवड़ी’ पर जो, सदा ख़ैरात पर जीते
उन्हें तुम क्यों बुलाते हों, करेंगे वो बग़ावत क्या ।
नज़र रहते हुए भी जो, बने कस्दन हैं नाबीना
उन्हें करना नहीं कुछ भी तो फिर शिकवा शिकायत क्या ।
रखूँ उम्मीद क्या उनसे भला किसका करेगा वह
हवा का रुख़ न पहचाने करेगा वह सियासत क्या ।
मिलेगा सामने खुल कर मिलाए हाथ भी हँस कर
नहीं साजिश रचेगा वो, कोई देगा जमानत क्या ।
अगर ना तरबियत सालिम, नहीं अख़्लाक़ ही साबित
बिना बुनियाद के होती कहीं पुख़्ता इमारत क्या ।
करूँ मैं बात क्या ’आनन’, नहीं तहजीब हो जिसमे
पता कुछ भी नहीं जिसको, अदब क्या है शराफ़त क्या ।
-आनन्द.पाठक-
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