ग़ज़ल :
122---122---122---122
किसी के मिलन की, विरह की कथा हूँ
ग़ज़ल हूँ किसी की मैं हर्फ़-ए-वफ़ा हूँ ।
तवारीख़ में हर ग़ज़ल की गवाही
मैं हर दौर का इक सफ़ी आइना हूँ ।
कभी ’हीर’ राँझा’ की बन कर कहानी
किसी की तड़पती हुई मैं सदा हूँ ।
लड़ाई में जब उलझी रहती है दुनिया
मुहब्बत के पैग़ाम का मैं पता हूँ ।
कभी ’मीर’ ग़ालिब’ , कभी दाग़, मोमिन
उन्हीं की मै ख़ुशबू , वही सिलसिला हूँ ।
कभी बेज़ुबानों की बनती ज़ुबाँ मैं
कभी मैं फ़कीरों की हर्फ़-दुआ हूँ ।
अगर दिल से ’आनन’ सुनाओ ग़ज़ल तो
उतर जाऊँगी दिल में ,ऎसी कला हूँ ।
-आनन्द.पाठक-
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