रविवार, 2 मार्च 2025

ग़ज़ल 432 [ 06- ] सच तो कुछ और था-

 ग़ज़ल 432 [06-G)सच तो कुछ और था

2212---1212---2212---12

सच तो कुछ और था मगर तुमने घुमा दिया

चेहरे के रंग ने मुझे  सब कुछ बता दिया ।


देता भी क्या जवाब मैं तुझको, ऎ ज़िंदगी !

तेरे सवाल ने मुझे पानी पिला दिया ।


वैसे तुम्हारे शौक़ में शामिल तो ये न था

देखा कहीं जो बुतकदा तो सर झुका दिया


इतना भी तो सरल न था दर्या का रास्ता

पत्थर को काट काट के रस्ता बना दिया


क्या क्या न हादिसे हुए थे राह-ए-इश्क़ में

करता भी याद कर के क्या सबको भुला दिया


सुनने को दास्तान था तेरी जुबान से

तूने कहाँ से ग़ैर का किस्सा सुना दिया


कुछ शर्त ज़िंदगी के थे हर बार सामने

हर बार शर्त रो के या गा कर निभा दिया ।


क्यों पूछती हैं बिजलियाँ घर का मेरे, पता

’आनन’ का यह मकान है, किसने बता दिया?


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

बुतकदा =मंदिर


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