सोमवार, 17 मार्च 2025

ग़ज़ल 433 [07-G] : रवायत बोझ हो जाए--

 ग़ज़ल 433 [ 07-G]

1222---1222---1222----122


रवायत बोझ हो जाए उसे कब तक उठाना

अरे क्या सोचना इतना-’कहेगा क्या ज़माना !’


इशारों में कही बातें इशारों में ही अच्छी

ज़ुबां से क्या बयां करना किसी को क्या बताना


किसी के पैर से कब तक चलोगे तुम कहाँ तक

छुपी ताक़त है अपनी क्यों न उसको आजमाना


हमेशा इश्क. को तुम कोसते, नाक़िस बताते

तुम्हारी सोच क्यों होती नहीं है आरिफ़ाना ।


शराफ़त से अगर बोलो तो कोई सुनता कहाँ है

शराफ़त छोड़ कर बोलो सुने सारा ज़माना ।


तकज़ा है यही इन्सानियत का, शख़्सियत का

ज़ुबां दी है किसी को तो लब-ए-दम तक निभाना।


मुहब्बत भी इबादत से नहीं कमतर है ’आनन’

अगर उसमे न धोखा हो, न हो सजदा बहाना ।


-आनन्द पाठक-


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