ग़ज़ल 434 [ 08-G]
1222---1222---1222---1222
कहाँ आसान होता है किसी को यूँ भुला पाना
वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना
पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर
अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना
नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं
अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना
शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता
परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।
अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो
वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।
कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में
तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।
मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती
हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना
-आनन्द.पाठक-
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