ग़ज़ल 437 [11-G]
212---212---212---212
यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं
कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,
हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं
बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा
ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं
तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई
मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं
रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी
राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं
लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही
सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।
वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ
जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें
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