ग़ज़ल 430 [04-G)
2212---2212
यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !
सच है यहाँ बे आशियाँ ।
क्यों दो दिलों के बीच की
घटती नहीं है दूरियाँ ।
बस ख़्वाब ही मिलते इधर
मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।
इस ज़िंदगी के सामने
क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।
हर रोज़ अब उठने लगीं
दीवार दिल के दरमियाँ ।
तुम चंद सिक्कों के लिए
क्यों बेचते आज़ादियाँ ।
किसको पड़ी देखें कभी
’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।
-आनन्द.पाठक-
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