अनुभूतियाँ 167/54
665
लोग समझते रहे हमेशा
अपनी अपनी ही नज़रों से
तौल रहे है प्रेम हमारा
काम-वासना के पलड़ों से।
666
नहीं भुलाने वाली बातें
तुम्ही बता दो कैसे भूलें ?
माना हाथ हमारे बौने
चाह मगर थी, तुमको छू लें।
667
ऊषा की तुम प्रथम किरण बन
आती हो जब द्वार हमारे ,
खुशबू से भर जाता आँगन
खिल जाते हैं सपने सारे ।
668
आशा और निराशा के संग
तुमने जितना पिया अँधेरा
एक अटल विश्वास प्रबल था
तब जा कर यह हुआ सवेरा ।
-आनन्द.पाठक--
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें