ग़ज़ल 427 [01G]
1222---1222---1222---1222
मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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नशा दौलत का है उसको, अभी ना होश आएगा
खुलेगी आँख तब उसकी, वो जब सब कुछ गँवाएगा।
बहुत से लोग ऐसे हैं, ख़ुदा ख़ुद को समझते हैं
सही जब वक़्त आएगा, समय सब को सिखाएगा।
बख़ूबी जानता है वह कि उसकी हैसियत क्या है
बड़ा खुद को बताने में तुम्हें कमतर बताएगा ।
वो साज़िश ही रचा करता, हवाओं से है याराना
अगर मौक़ा मिला उसको, चिराग़ों को बुझाएगा
किताबों में लिखीं बाते, सुनाता हक़ परस्ती की
अमल में अब तलक तो वह, न लाया है, न लाएगा
हवा में भाँजता रहता है तलवारें दिखाने को
जहां कुर्सी दिखी उसको, चरण में लोट जाएगा ।
शराफत की भली बातें, कहाँ सुनता कोई "आनन"
सभी अपनी अना में है, किसे तू क्या सुनाएगा ।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को आप श्री विनोद कुमार उपाध्याय की आवाज़ में यहाँ सुनें
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