अनुभूति 154/41
613
उदगम से लेकर आख़िर तक
नदिया करती कलकल छलछल ।
अन्तर्मन में प्यास मिलन की
लेकर बहती रहती अविरल ।
614
सोन चिरैया गाती रह्ती
किसे सुनाती रहती अकसर
ना जाने कब उड़ जाएगी
तन का पिंजरा किस दिन तज कर
615
सभी बँधे अपने कर्मों से
ॠषिवर, मुनिवर, साधू जोगी
एक बिन्दु पर मिलना सबको
कामी, क्रोधी, लोभी, भोगी ।
616
अरसा बीते, पूछा तुमने-
"कहाँ किधर हो? कैसे हो जी?"
जैसा छोड़ गई थी उस दिन
वैसा ही हूँ , अच्छा हूँ जी ।
-आनन्द.पाठक-
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