शनिवार, 12 अक्टूबर 2024

अनुभूतियाँ 154/41

अनुभूति 154/41


613

उदगम से लेकर आख़िर तक 

नदिया करती कलकल छलछल ।

अन्तर्मन में प्यास मिलन की

लेकर बहती रहती अविरल ।



614

सोन चिरैया गाती रह्ती 

किसे सुनाती रहती अकसर

ना जाने कब उड़ जाएगी

तन का पिंजरा किस दिन तज कर



615

सभी बँधे अपने कर्मों से

ॠषिवर, मुनिवर, साधू जोगी

एक बिन्दु पर मिलना सबको

कामी, क्रोधी, लोभी, भोगी ।



616

अरसा बीते, पूछा तुमने-

"कहाँ किधर हो? कैसे हो जी?"

जैसा छोड़ गई थी उस दिन

वैसा ही हूँ , अच्छा हूँ जी ।

-आनन्द.पाठक-

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