रविवार, 20 अक्टूबर 2024

अनुभूति 160/47

 अनुभूति 160/47

637

तर्क नहीं जब, नहीं दलीलें

शोर शराबा ही शामिल हो

क्यों उलझे हो उसी बहस में

अन्तहीन जो लाहासिल हो । 


638

तुम हो ख़ुद में  एक पहेली

आजीवन हल कर ना पाया

पर्दे के अन्दर पर्दा है --

राज़ यही कुछ समझ न आया।


639

सूरज कब श्रीहीन हुआ है

जन-मानस को जगा दिया है

बादल को यह भरम हुआ है

सूरज उसने छुपा दिया है ।


640

वही अनर्गल बातें फिर से

वही तमाशा फिर दुहराना  

जिन बातों का अर्थ न कोई

उन बातों में फिर क्यों आना ।

 

-आनद.पाठक-



लाहासिल = जिसका कोई हासिल न हो, अनिर्णित

कोई टिप्पणी नहीं: