अनुभूति159/46
633
नहीं समझना है जब तुमको
कौन तुम्हें फिर क्या समझाए
इतनी जिद भी ठीक नहीं है
घड़ी मिलन की बीती जाए ।
634
सबके अपने जीवन क्रम है
सबकी अपनी मजबूरी है
मन तो वैसे साथ साथ है
तन से तन की ही दूरी है ।
635
समझौते करने पड़ते हैं
जीवन की गति से, प्रवाह में
कभी ठहरना, गिर गिर जाना
मंज़िल पाने की निबाह में
636
एक तुम्ही तो नहीं अकेली
ग़म का बोझ लिए चलती हो
हर कोई ग़मजदा यहाँ है
ऊपर से दुनिया छलती है ।
-आनन्द.पाठक-
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