अनुभूति 152/39
1
उदगम से लेकर आख़िर तक
नदिया करती कलकल छलछल ।
अन्तर्मन में प्यास मिलन की
लेकर बहती रहती अविरल ।
2
सोन चिरैया गाती रह्ती
किसे सुनाती रहती अकसर
ना जाने कब उड़ जाएगी
तन का पिंजरा किस दिन तज कर
3
सभी बँधे अपने कर्मों से
ॠषिवर, मुनिवर, साधू जोगी
एक बिन्दु पर मिलना सबको
कामी, क्रोधी, लोभी, भोगी ।
4
अरसा बीते, पूछा तुमने-
"कहाँ किधर हो? कैसे हो जी?"
जैसा छोड़ गई थी उस दिन
वैसा ही हूँ , अच्छा हूँ जी ।
-आनन्द.पाठक-
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