कविता 27 :ख़्वाब देखना--
ख़्वाब देखना ,बुरा नहीं है ।
हक़ है तुम्हारा।
यह किसी की दुआ नहीं है।
सिर्फ़ देखना रोज़ देखना
और देखते ही बस रहना, कुछ न करना
फिर सो जाना, फिर खो जाना
ठीक नहीं है ।
उठो , जगो, पुरुषार्थ जगाओ
पुरुषार्थ तुम्हारा भीख नही है ।
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें