अनुभूतियाँ 149/36
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एक किसी के जाने भर से
दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती
चाह अगर है जीने की तो
राह नई खुद राह दिखाती
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कहाँ गई वो ख़ुशी तुम्हारी
कहाँ गया अब वो अल्हड़पन
इस बासंती मौसम में भी
दुखी दुखी सी क्यों रहती जानम
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कब तक मौन रहोगी यूँ ही
कुछ तो अन्तर्मन की बोलो
अन्दर अन्दर क्यों घुलती हो
कुछ तो मन की गाँठें खोलो
596
हर बार छला दिल ने मुझको
हर बार उसी की सुनता हूँ
क्या होता हैं सपनों का सच
मालूम, मगर मैं बुनता हूँ
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