ग़ज़ल 419[ 68 फ़]
1222---1222---1222
नहीं वह राज़ से पर्दा उठाता है ।
हमेशा ग़ैब से दुनिया चलाता है।
अक़ीदा साबित-ओ-सालिम कि झूठा है ?
यही हर मोड़ पर वह आजमाता है ।
नज़र आता नहीं लेकिन कहीं तो है
इशारों में मुझे कोई बुलाता है ।
उतर जाना है कश्ती ले के दरिया में ,
भरोसा है तो फिर क्यों ख़ौफ़ खाना है ।
चिराग़ों को भले तुम क़ैद कर लोगे ,
उजालों को न कोई रोक पाता है ।
हुनर होगा तुम्हारा ख़ास जो कोई
ज़माने में नुमायाँ हो ही जाता है ।
ज़माना जो भी समझे इश्क़ को’ ’आनन’
निभाना पर इसे सबको न आता है ।
-आनन्द.पाठक-
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