ग़ज़ल 421[70 फ़]
1222---1222---1222---1222
ये हस्ती चंद रोज़ां की, फ़क़त इतना फ़साना है ।
किसी के पास जाना है तो ख़ुद से दूर जाना है।
उमीदों से भरा है दिल कि आओगे इधर इक दिन
अक़ीदा है अभी क़ायम , क़यामत तक निभाना है ।
तुम्हे एह्सास तो होगा, तड़पता है किसी का दिल
उठा तो अब निक़ाब-ए-रुख, नफ़स का क्या ठिकाना है ।
हवाओं में घुली ख़ुशबू पता उसका बताती है
मुझे मत रोक ऎ ज़ाहिद !मुझे उस ओर जाना है ।
ज़माने की हिदायत को भला माना कहाँ आशिक
नहीं सुनना जिसे कुछ भी, उसे फिर क्या सुनाना है ।
हमारी बुतपरस्ती की शिकायत क्यों तुम्हें, वाइज़ !
तुम्हारी राह चाहे जो, हमारी आशिक़ाना है ।
जुनून-ए-शौक़ है ज़िंदा तभी तक मैं भी हूँ ज़िंदा
सिवा इसके न ’आनन’ को मिला कोई बहाना है ।
-आनन्द.पाठक-
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