ग़ज़ल 416 [ 32 अ ]
1222---1222---1222---1222
रखें इलजाम हम किस पर, वतन की इस तबाही का ।
सभी तो तर्क देते है, यहाँ अपनी सफ़ाई का ।
लगा है हाथ जिसके खूँ, छुपा कर है रखा ख़ंज़र
किया दावा हमेशा ही वो अपनी बेगुनाही का ।
मिला कर हाथ दुश्मन से, वो ग़ैरों से रहा मिलता
सरे महफ़िल किया चर्चा ,वो मेरी बेवफ़ाई का ।
क़दम दो-चार- दस भी रख सका ना घर से जो बाहर
वही समझा गया क़ाबिल हमारी रहनुमाई का ।
पला करता है गमलों में , घरौदों के जो साए में
उसे लगता हमेशा क्यों, वो मालिक है ख़ुदाई का।
बदल देता हो जो अपनी गवाही चन्द सिक्कों पर
भला कोई करे कैसे यकीं उसकी गवाही का ।
ज़माने की मसाइल पर नहीं वह बोलता ’आनन’
लगा अपना सुनाने ही वो किस्सा ख़ुदसिताई का ।
-आनन्द पाठक-
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