शनिवार, 10 अगस्त 2024

ग़ज़ल 417 [21-अ] : तुम्हे लगता है जैसे--

  ग़ज़ल 417 [21 अ] -ओके

1222---1222---1222---1222


तुम्हें लगता है जैसे यह तुम्हारी ही बड़ाई है

खरीदी भीड़ की ताली, खरीदी यह बधाई  है ।


जहाँ कुछ लोग बिक जाते, खनकते चन्द सिक्कों पर

वहीं सच क़ैद में है,  झूठ की ही  रहनुमाई है ।


हमें मालूम है कल क्या अदालत फ़ैसला देगी ,

मिलेगी क़ैद फूलों को ही, पत्थर की  रिहाई है ।


रहा हो दस्तबस्ता, सरनिगूँ दरबार में जो भी

वही देता हमेशा ही बग़ावत की दुहाई है ।


रँगा चेहरा है दिल काला, मुखौटों पर मुखौटे हैं,

कमाल-ए-ख़ास है उसका कि उस पर भी रँगाई है।


भरोसा है नहीं उसको , ज़माने पर , न ख़ुद पर ही

न लोगों से वो मिलता है , न ख़ुद से आशनाई है ।



फिसलना तो बहुत आसान होता है यहाँ ’आनन’

बहुत मुशकिल हुआ करती सदाक़त की चढ़ाई है।


-आनन्द पाठक-

कोई टिप्पणी नहीं: