ग़ज़ल 417 [21 अ] -ओके
1222---1222---1222---1222
तुम्हें लगता है जैसे यह तुम्हारी ही बड़ाई है
खरीदी भीड़ की ताली, खरीदी यह बधाई है ।
जहाँ कुछ लोग बिक जाते, खनकते चन्द सिक्कों पर
वहीं सच क़ैद में है, झूठ की ही रहनुमाई है ।
हमें मालूम है कल क्या अदालत फ़ैसला देगी ,
मिलेगी क़ैद फूलों को ही, पत्थर की रिहाई है ।
रहा हो दस्तबस्ता, सरनिगूँ दरबार में जो भी
वही देता हमेशा ही बग़ावत की दुहाई है ।
रँगा चेहरा है दिल काला, मुखौटों पर मुखौटे हैं,
कमाल-ए-ख़ास है उसका कि उस पर भी रँगाई है।
भरोसा है नहीं उसको , ज़माने पर , न ख़ुद पर ही
न लोगों से वो मिलता है , न ख़ुद से आशनाई है ।
फिसलना तो बहुत आसान होता है यहाँ ’आनन’
बहुत मुशकिल हुआ करती सदाक़त की चढ़ाई है।
-आनन्द पाठक-
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