ग़ज़ल 420 [ 69 फ़]
1222---1222---1222---122
मिटा दोगी अगर मेरी मुहब्बत की निशानी
हवाओं में रहेगी गूँजती मेरी कहानी ।
कभी तनहाइयों में जब मुझे सोचा करोगी ,
नहीं तुम भूल पाओगी मेरी यादें पुरानी ।
वो दर्या का किनारा,चाँदनी रातों का मंज़र
मुझे सब याद आएँगी, तेरी बातें सुहानी ।
भँवर में डूबती कश्ती किसी की तू ने देखी ,
न भूला हूँ तेरा डरना, न अश्क़-ए- नागहानी ।
अरे! अफ़सोस क्या करना, मुहब्बत की ये कश्ती
किसी की पार लग जानी , किसी की डूब जानी ।
भले मानो न मानो, इश्क़ तुहफा है ख़ुदा का
हसीं आग़ाज़ से अंजाम तक है जिंदगानी ।
मुसाफिर इश्क़ का है वह, न उसको ख़ौफ़ कोई
बलाएँ हो ज़मीनी या बला-ए-आसमानी ।
तुम्हें लगता था ’आनन’ वह तुम्हारी ही रहेगी
ग़रज़ की है यहाँ दुनिया, सभी बातें जबानी ।
-आनन्द.पाठक-
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