गुरुवार, 15 अगस्त 2024

ग़ज़ल 420 [69 फ़] : मिटा दोगी अगर मेरी मुहब्बत --

 ग़ज़ल 420 [ 69 फ़]

1222---1222---1222---122


मिटा दोगी अगर मेरी मुहब्बत की निशानी

हवाओं में रहेगी गूँजती मेरी कहानी ।


कभी तनहाइयों में जब मुझे सोचा करोगी ,

नहीं तुम भूल पाओगी मेरी यादें पुरानी ।


वो दर्या का किनारा,चाँदनी रातों का मंज़र

मुझे सब याद आएँगी, तेरी बातें सुहानी ।


भँवर में डूबती कश्ती किसी की तू ने देखी ,

न भूला हूँ तेरा डरना, न अश्क़-ए- नागहानी  ।


 अरे! अफ़सोस क्या करना, मुहब्बत की ये कश्ती

किसी की पार लग जानी , किसी की डूब जानी ।


भले मानो न मानो, इश्क़ तुहफा है ख़ुदा का

हसीं आग़ाज़ से अंजाम तक  है जिंदगानी ।


मुसाफिर इश्क़ का है वह, न उसको ख़ौफ़ कोई

बलाएँ हो ज़मीनी या बला-ए-आसमानी ।


तुम्हें लगता था ’आनन’ वह तुम्हारी ही रहेगी

ग़रज़ की है यहाँ  दुनिया, सभी बातें जबानी ।


-आनन्द.पाठक-


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