ग़ज़ल 409 [ 33 A]
21-121-121-122//21-121-121-121-122
लोग
चले है प्यास बुझाने, बिन
पानी तालाब जिधर है ,
ढूँढ
रहे सब साया अपना, जिस जानिब ना एक शजर है।
दीप
जलाने वाले कम हैं, और
बुझाने वाले कितने
रहबर
ही रहजन बन बैठा, सहमी
सहमी आज डगर है।
आदर्शों
की बाद मुसाफिर रख लो तुम अपनी झोली में
कौन
सुनेगा बात तुम्हारी, बहरा
जब हर एक बशर है ।
कितने
दिन तक रह पाओगे. शीशे की दीवारों में तुम
आज
नहीं तो कल टूटेंगी सबके हाथों में पत्थर
है ।
दरवाजे
सब बंद किए हैं, बैठे
हैं कमरे के भीतर
क्या
खोलें हम खिड़की कोई, बाहर
ख़ौफ़ भरा मंज़र है ।
सीने
में बारूद भरे हैं, हाथों
में माचिस की डिब्बी
निकलूँ
भी तो कैसे निकलूँ, सबके
हाथों में ख़ंज़र है ।
सूरज
की किरणों को ’आनन’ लाने को जो लोग गए थे,
अँधियारे
लेकर लौटे हैं, घोटालों
में क़ैद सहर है ।
-आनन्द.पाठक-
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