गुरुवार, 1 अगस्त 2024

ग़ज़ल 409 [ 33 A] : लोग चले हैं प्यास बुझाने --

 ग़ज़ल 409 [ 33 A]  

21-121-121-122//21-121-121-121-122


लोग चले है प्यास बुझाने, बिन पानी तालाब जिधर है ,

ढूँढ रहे हैं साया मानो , जिस जानिब ना एक शजर है।


दीप जलाने वाले कम हैं , शोर मचाने वाले सरकश,

रहबर ही रहजन बन बैठा, सहमी सहमी आज डगर है।


आदर्शों की बाद मुसाफिर रख लें सब अपनी झोली में

कौन सुनेगा बात तुम्हारी, सोया जब हर एक बशर है ।


कितने दिन तक रह पाओगे. शीशे की दीवारों में तुम

आज नहीं तो कल तोड़ेंगे, सबके हाथों में पत्थर है ।


दरवाजे सब बंद किए हैं, बैठे हैं कमरे के भीतर

क्या खोले हम खिड़की, साहिब !बाहर ख़ौफ़ भरा मंज़र है ।


सीने में बारूद भरा है, हाथों में माचिस की डिब्बी

निकलूँ भी तो कैसे निकलूँ, सबके हाथों में ख़ंज़र है ।


सूरज की किरणों को ’आनन’ लाने को जो लोग गए थे,

अँधियारे लेकर लौटे हैं, घोटालों में क़ैद सहर है ।


-आनन्द.पाठक-

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