ग़ज़ल 412 [64-फ़ ]
2122---1212---22
जिसको चाहा, कहाँ उसे पाया ।
वो गया लौट कर नहीं आया ॥
ज़िंदगी बोल कर गई जब से ,
फिर ये दुनिया लगी मुझे माया ।
ग़ैब से ही करे इशारे. वो ,
सामने कब भला नज़र आया ।
एक ही है जो मेरा अपना है
और कोई मुझे नहीं भाया ।
शेख़ साहब न रोकिए मुझको
आज महबूब मेरे घर आया ।
रंज़-ओ-ग़म, चन्द अश्क़ के क़तरे
इश्क़ का बस यही है सरमाया ।
कैसे कह दूँ मैं इश्क़ में ’आनन’
कौन तड़पा है कौन तड़पाया ।
-आनन्द.पाठक-
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