मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

ग़ज़ल 361/36 : सीने में है जो आग--


ग़ज़ल 361/36


221---2121---1221---212


सीने में है जो आग इधर, क्या उधर नहीं ?

कैसे मैं मान लूँ कि तुझे  कुछ ख़बर नहीं  ।


कल तक तेरी निगाह में इक इन्क़लाब था,

अब क्या हुआ रगों में तेरी वो शरर  नहीं ।


वैसे तो ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिया, मगर

कोई न हमकलाम कोई हम सफ़र नहीं ।


गुंचें हो वज्द में कि मसर्रत में हों, भले ,

माली की बदनिगाह से है बेख़बर नहीं ।


तेरी इनायतों का अगर सिलसिला रहा

कश्ती मेरी डुबा दे कोई वो लहर नहीं ।


डूबा जो इश्क़ में है वो उबरा न उम्र भर

यह इश्क़ है और इश्क़ कोई दर्दे-सर नही


तू मान या न मान कहीं कुछ कमी तो है

’आनन’ तेरा अक़ीदा अभी मोतबर नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

शरर = चिंगारी
गुंचा = कलियाँ
वज्द  में = उल्लास में ,आनन्द में
मसर्रत में = हर्ष मे, ख़ुशी में
अक़ीदा = आस्था , विश्वास
मोतबर = विशवसनीय, भरोसेमंद 



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