ग़ज़ल 361[37F]
221---2121---1221---212
सीने में है जो आग इधर, क्या उधर नहीं ?
कैसे मैं मान लूँ कि तुझे कुछ ख़बर नहीं ।
कल तक तेरी निगाह में इक इन्क़लाब था,
अब क्या हुआ रगों में तेरी वो शरर नहीं ।
वैसे तो ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिया, मगर
कोई न हमकलाम कोई हम सफ़र नहीं ।
गुंचें हो वज्द में कि मसर्रत में हों, भले ,
गुलचीं की बदनिगाह से है बेख़बर नहीं ।
उनकी इनायतों का अगर सिलसिला रहा
कश्ती मेरी डुबा दे कोई वो लहर नहीं ।
डूबा जो इश्क़ में है वो उबरा न उम्र भर
यह इश्क़ है और इश्क़ कोई दर्दे-सर नही
तू मान या न मान कहीं कुछ कमी तो है
’आनन’ तेरा अक़ीदा अभी मोतबर नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
शरर = चिंगारी
गुंचा = कलियाँ
वज्द में = उल्लास में ,आनन्द में
मसर्रत में = हर्ष मे, ख़ुशी में
अक़ीदा = आस्था , विश्वास
मोतबर = विशवसनीय, भरोसेमंद
गुंचा = कलियाँ
वज्द में = उल्लास में ,आनन्द में
मसर्रत में = हर्ष मे, ख़ुशी में
अक़ीदा = आस्था , विश्वास
मोतबर = विशवसनीय, भरोसेमंद
सं 29-06-24
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