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इतना भी आसान नहीं है
इल्म-ए-सदाक़त, इल्म-ए-दियानत
वरना तो ता उम्र ज़िंदगी
भेजा करती रह्ती लानत
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दिल से जब मिट जाए जिस दिन
इस्याँ और गुनह तारीक़ी
जाग उठेंगे तब उस दिन से
इश्क़ रुहानी , इश्क़-ए- हक़ीक़ी
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सतरंगी अनुभूति मेरी
श्वेत-श्याम सा अनुभव भी है
भोगी हुई व्यथाएँ शामिल
कुछ खुशियों के कलरव भी है
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एक बार प्रभु ! ऐसा कर दो
अन्तर्मन में ज्योति जगा दो
काम क्रोध मद मोह तमिस्रा
मन की माया दूर भगा दो ।
-आनन्द.पाठक-
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