अनुभूतियां 127/14
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स्मॄतियों के पंख लगा कर
उड़ते बादल नील गगन में
अनुभूति की बूँदे छन छन
बरसें मन के उजड़े वन में
506
बात बात पर ज़िद करती हो
व्यर्थ तुम्हें अब समझाना है
लोग नहीं वैसे कि जैसे-
तुमने समझा या जाना है
507
रंज़ गिला शिकवा सब मुझसे
और तुम्हारी तंज बेरुखी
मेरी आँखों में सपनो-सा
बसी रही तुम लेकिन फिर भी
508
कोई तो है जो छुप छुप कर
संकेतों से मुझे बुलाता
छुवन हवा की जैसे लगती
लेकिन कोई नज़र न आता ।
-आनन्द.पाठक
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