ग़ज़ल 346 [22F]
2122--1212--22
काश! खुद से अगर मिला होता,
भीड़ में यूँ न लापता होता ।
रंग चेहरे का क्यों उडा करते
जब हक़ीक़त से सामना होता ।
तुम न होते तो ज़िंदगी फिर क्या,
कौन साँसों में फिर बसा होता ?
वक़्त अपने हिसाब से चलता,
चाहने से हमारे क्या होता ।
बात सुननी ही जब नहीं मेरी,
आप से और क्या गिला होता ।
पा ही जाता मैं मंज़िल-ए-मक़्सूद
एक ही राह जो चला होता ।
वह भी आता तुझे नज़र ’आनन’
"ढाइ-आखर"- जो तू पढ़ा होता ।
-आनन्द.पाठक-
सं 28-06-24
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