ग़ज़ल 305 [ 70इ]
1222---122
निज़ाम आया नया है
बयाँ सच का मना है
उधर आँसू गिरे हैं
इधर पत्थर गला है
अगर तुम चुप रहोगे
तो फिर मालिक ख़ुदा है
अमीर-ए-कारवाँ बन
हमे फिर छल रहा है
मेरी ख़ामोशियों का
किसी को क्या पता है
दिया नन्हा सही, पर
अँधेरों से लड़ा है
सवालों के मुक़ाबिल
इधर ’आनन’ खड़ा है
-आनन्द.पाठक-
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