ग़ज़ल 307
2122--2122--2122
बात में उसकी रही कब पुख्तगी है
सोच में साजिश भरी है, तीरगी है
एक चेहरे पर कई चेहरे लगाता
पर चुनावों में भुनाता सादगी है
लग रही है कुछ निज़ामत में कमी क्यों
लोग प्यासे हैं लबों पर तिश्नगी है
घर के आँगन में उठीं दीवार इतनी
मर चुकी आँखों की अब वाबस्तगी है
रोशनी देखी नहीं जिसने अभी तक
जुगनुओं की रोशनी अच्छी लगी है
चन्द लोगों के यहाँ जश्न-ए-चिरागाँ
बस्तियों में दूर तक बेचारगी है
भीड़ में क्या ढूँढते रहते हो ’आनन’
अब न रिश्तों में रही वो ताजगी है ।
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
पुख्तगी = दृढ़ता, स्थायित्व
निज़ामत = शासन व्यवस्था
वाबस्तगी = लगाव खिंचाव
जश्न-ए-चिरागाँ = रोशनी का त्यौहार
तीरगी = अँधेरा
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