गुरुवार, 16 फ़रवरी 2023

ग़ज़ल 307[72इ] : बात मे उसके रही कब पुख्तगी है

 ग़ज़ल 307

2122--2122--2122

 

बात में उसकी  रही कब पुख्तगी  है

सोच में साजिश भरी है, तीरगी है


एक चेहरे पर कई चेहरे लगाता

पर चुनावों में भुनाता सादगी है


लग रही है कुछ निज़ामत में कमी क्यों

लोग प्यासे हैं लबों पर तिश्नगी है


घर के आँगन में उठीं दीवार इतनी

मर चुकी आँखों की अब वाबस्तगी है


रोशनी देखी नहीं जिसने अभी तक

जुगनुओं की रोशनी अच्छी लगी है


चन्द लोगों के यहाँ जश्न-ए-चिरागाँ

बस्तियों में दूर तक बेचारगी है


भीड़ में क्या ढूँढते रहते हो ’आनन’

अब न रिश्तों में रही वो ताजगी है ।


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ 

पुख्तगी = दृढ़ता, स्थायित्व

निज़ामत = शासन व्यवस्था

वाबस्तगी = लगाव खिंचाव

जश्न-ए-चिरागाँ = रोशनी का त्यौहार

तीरगी = अँधेरा



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