ग़ज़ल 344 [20F]
1212---1122---1212---112
मैं दूर जा के भी उसको कभी भुला न सका
करीब था तो कभी हाल-ए-दिल सुना न सका
तमाम उम्र इसी इन्तिज़ार में गुज़री,
गया था कह के, मगर लौट कर वो आ न सका ।
हर एक दौर में थीं साज़िशें मिटाने की
करम ख़ुदा का था कोई हमें मिटा न सका ।
ख़याल-ए-ख़ाम थे अकसर जगे रहे मुझमें
मैं चाह कर भी नज़र आप से मिला न सका ।
बना के ख़ाक से फिर ख़ाक में मिलाए क्यों
ये खेल आप का मुझको समझ में आ न सका
जिधर है दैर-ओ-हरम, है उधर ही मयख़ाना
किधर की राह सही है कोई बता न सका ।
तेरी तलाश में ’आनन’ कहाँ कहाँ न गया
मुक़ाम क्या था? कहाँ था ? कभी मैं पा न सका ।
-आनन्द.पाठक--
सं 28-06-24
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