मुक्तक 24: दरीचे से
:1:
212--212--212--212
लोग बैसाखियों के सहारे चले
जो चले भी किनारे किनारे चले
सरपरस्ती न हासिल हुई थी जिन्हे
वो समन्दर में कश्ती उतारे चले ।
लोग बैसाखियों के सहारे चले
जो चले भी किनारे किनारे चले
सरपरस्ती न हासिल हुई थी जिन्हे
वो समन्दर में कश्ती उतारे चले ।
:2:
2122--2122--2122
वह उजालों की न कीमत जानता है
बस अँधेरों को ही वह पहचानता है
इस तरह मगरूर अपने आप में वह
क़ौम की तक़दीर ख़ुद को मानता है।
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