ग़ज़ल 334 /[10 F]
212---212---212---212
रायगाँ हो न जाए कहीं रोशनी -
उससे पहले तू दिल से मिटा तीरगी
उसने पर्दा उठाया सहर हो गई
और दिल में जगी एक पाकीज़गी
इक अक़ीदत रही आख़िरी साँस तक
शख़्सियत उसकी थी बस सुनी या पढ़ी
ज़िंदगी में तो वैसे कमी कुछ नहीं
जब न तुम ही मिले तो कमी ही कमी
मैं शुरु भी करूँ तो कहाँ से करूँ
मुख़्तसर तो नही है ग़म-ए-ज़िंदगी
इन हवाओं की ख़ुशबू से ज़ाहिर यही
इस चमन से है गुज़री अभी इक परी
एक एहसास है एक विश्वास है
तुमने ’आनन’ की देखी नही बंदगी
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
रायगां = व्यर्थ
सहर = सुबह
पाकीजगी = पवित्रता
अक़ीदत = श्रद्धा ,विश्वास
मुख़्तसर = संक्षिप्त
सं 27-06-24
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