गुरुवार, 23 मार्च 2023

ग़ज़ल 316[81 इ] : सच से उसका कोई वास्ता भी नहीं

 ग़ज़ल 316[81]


212---212---212---212


सच से उस का कोई वास्ता भी नहीं

क्या हक़ीक़त उसे जानना  भी नहीं


उँगलियाँ वो उठाता है सब की तरफ़

और अपनी तरफ़ देखता भी नहीं


रंग चेहरे क्यों उड़ गया आप का

इस तरफ़ तो कोई आइना भी नहीं


पीठ अपनी सदा थपथपाते हो तुम

क्या कहें तुमको कोई हया भी नहीं


टाँग यूँ ही अड़ाते हो तुम हर जगह

तुम को देगा कोई रास्ता भी नहीं


आप दाढ़ी मे क्या लग गए खोजने

मैने 'तिनका' अभी तो कहा भी नहीं


रेवड़ी बाँटने  ख़ुद  चले आप थे

किसको किसको दिया कुछ पता ही नहीं


राज-सत्ता भी ’आनन’ अजब चीज़ है

मिल गई , तो कोई छोड़ता भी नहीं


-आनन्द पाठक-

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