ग़ज़ल 330[ 06 F]
221---1222--// 221--1222
देखा जो कभी तुमको, खुद होश गँवा बैठे
क्या तुमको सुनाना था ,क्या तुमको सुना बैठे ।
कुछ बात हुआ करतीं पर्दे की तलब रखती
यह क्या कि समझ अपना, हर बात बता बैठे ।
मालूम हमें क्या था बदलेगी हवा ऐसी
हर बार हवन करते, हम हाथ जला बैठे ।
यह राह फ़ना की है, अंजाम से क्या डरना
जिसका न मुदावा है, वह रोग लगा बैठे ।
रोके से नहीं रुकता, लगता न लगाने से
इस बात से क्या लेना, दिल किस से लगा बैठे ।
चाँदी के क़लम से कब, सच बात लिखी तुमने
सोने की खनक पर जब दस्तार गिरा बैठे ।
उम्मीद तो थी तुम से, तुम आग बुझाओगे
नफ़रत को हवा देकर तुम और बढ़ा बैठे ।
आदात तुम्हारी क्या अबतक है वही 'आनन'
कोई भी मिला तुम से बस दर्द सुना बैठे ?
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
दस्तार = पगड़ी, इज्जत
मुदावा = इलाज
सं 26-06-24
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