रविवार, 9 अक्तूबर 2022

ग़ज़ल 274 [39 ई] :चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर

 ग़ज़ल 274[39 E]


212--212--212--212

चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर

जान कर भी तू अनजान है बेख़बर


प्यार मे हम हुए मुब्तिला इस तरह

बेखुदी मे न मिलती है अपनी खबर


यूँ ही साहिल पे आते नहीं खुद ब खुद

डूब कर ही कोई एक लाता  गुहर


या ख़ुदा ! यार मेरा सलामत रहे

ये बलाएँ कहीं मुड़ न जाएं उधर


अब न ताक़त रही, बस है चाहत बची

आ भी जाओ तुम्हे देख लूँ इक नज़र


ये बहारें, फ़ज़ा, ये घटा, ये चमन

है बज़ाहिर उसी का कमाल-ए-हुनर


उसकॊ देखा नहीं, बस ख़यालात में

सबने देखा उसे अपनी अपनी नजर


खुल के जीना भी है एक तर्ज-ए-अमल

आजमाना कभी देखना फिर असर


ज़िंदगी से परेशां हो ’आनन’ बहुत

क्या कभी तुमने ली ज़िंदगी की खबर ?


-आनन्द.पाठक-  

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