ग़ज़ल 274[39 E]
212--212--212--212
चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर
जान कर भी तू अनजान है बेख़बर
प्यार मे हम हुए मुब्तिला इस तरह
बेखुदी मे न मिलती है अपनी खबर
यूँ ही साहिल पे आते नहीं खुद ब खुद
डूब कर ही कोई एक लाता गुहर
या ख़ुदा ! यार मेरा सलामत रहे
ये बलाएँ कहीं मुड़ न जाएं उधर
अब न ताक़त रही, बस है चाहत बची
आ भी जाओ तुम्हे देख लूँ इक नज़र
ये बहारें, फ़ज़ा, ये घटा, ये चमन
है बज़ाहिर उसी का कमाल-ए-हुनर
उसकॊ देखा नहीं, बस ख़यालात में
सबने देखा उसे अपनी अपनी नजर
खुल के जीना भी है एक तर्ज-ए-अमल
आजमाना कभी देखना फिर असर
ज़िंदगी से परेशां हो ’आनन’ बहुत
क्या कभी तुमने ली ज़िंदगी की खबर ?
-आनन्द.पाठक-
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर।
ANITA ji--bahut bahut dhanyavaad
saadar
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