ग़ज़ल 276 [41इ]
212--212--212
शाख से पत्तियाँ टूट कर
उड़ गई हैं न जाने किधर
जब मिलन के लिए चल पड़ी
फिर न लौटी नदी अपने घर
चार दिन की खुशी के लिए
दौड़ते ही रहे उम्र भर
एक पल का ग़लत फ़ैसला
कर गया ज़िंदगी दर बदर
आशियाने परिंदो के थे-
अब न आँगन में है वो शजर
इक नज़र भर तुम्हें देख लूँ
ज़िंदगी एक पल तो ठहर
बात बरसों की सब कर रहे
अगले पल की न कोई ख़बर
तुमको ’आनन’ पता क्या नहीं
इश्क का है सफ़र पुरख़तर
-आनन्द.पाठक-
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