ग़ज़ल 271/36 ई
2122---2122--212
इक अजब अनजान सा रहता है डर
आजकल मिलती नहीं उसकी ख़बर
लौट आएँगे परिन्दे शाम तक -
मुन्तज़िर है आज भी बूढ़ा शजर
देश की माटी हमारी ख़ास है
ज़र्रा ज़र्रा है वतन का सीम-ओ-ज़र
पत्थरों के शहर में शीशागरी
कब तलक क़ायम रहेगा यह हुनर
दास्तान-ए-दर्द तो लम्बी रही
और ख़ुशियों की कहानी मुख़्तसर
उलझने हों, पेच-ओ-ख़म हो या बला
काटना होगा तुम्हें ही यह सफ़र
सब्र कर ’आनन’ कभी वो आएगा
तेरी आहों का अगर होगा असर
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
मुन्तज़िर = इन्तज़ार में
सीम-ओ-ज़र =चाँदी-सोना ,धन दौलत
शीशागरी = शीशे /कांच का काम
पेच-ओ-ख़म = मोड़ घुमाव
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