मंगलवार, 4 अक्तूबर 2022

ग़ज़ल 271 [ 36इ]: इक अजब अनजान सा रहता है डर

 ग़ज़ल 271/36 ई


2122---2122--212


इक अजब अनजान सा रहता है डर

आजकल मिलती नहीं उसकी ख़बर


लौट आएँगे परिन्दे शाम तक -

मुन्तज़िर है आज भी बूढ़ा शजर


देश की माटी हमारी ख़ास है

ज़र्रा ज़र्रा है वतन का सीम-ओ-ज़र


पत्थरों के शहर में शीशागरी

कब तलक क़ायम रहेगा यह हुनर


दास्तान-ए-दर्द तो लम्बी रही

और ख़ुशियों की कहानी मुख़्तसर


उलझने हों, पेच-ओ-ख़म हो या बला

काटना होगा तुम्हें ही यह सफ़र


सब्र कर ’आनन’ कभी वो आएगा

तेरी आहों का अगर होगा असर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

मुन्तज़िर = इन्तज़ार में

सीम-ओ-ज़र   =चाँदी-सोना ,धन दौलत

शीशागरी  =  शीशे /कांच का काम

पेच-ओ-ख़म = मोड़ घुमाव 


कोई टिप्पणी नहीं: