बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

ग़ज़ल 275 [ 40इ] : वह अपने आप पर झुँझला रहा है

 ग़ज़ल 275

1222---1222---122


वह अपने आप पर झुँझला रहा है

कोई उसका उजाला खा रहा है


समय रहता हमेशा एक सा कब

इशारों में समय समझा रहा है


ये लहजा आप का लगता नहीं है

कोई है, आप से बुलवा रहा है


चमन की तो हवा ऐसी नहीं थी

फ़ज़ा में ज़ह्र भरता जा रहा है


भले मानो न मानो सच यही है

पस-ए-पर्दा कोई भड़का रहा है


वो देता लाख अपनी है सफ़ाई

भरोसा क्यों नहीं हो पा रहा है


जिसे अपना समझते हो तुम ’आनन’

तुम्हारे काम कब वो आ रहा है


-आनन्द. पाठक--


पस-ए-पर्दा  = पर्दे के पीछे से 


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