ग़ज़ल 275
1222---1222---122
वह अपने आप पर झुँझला रहा है
कोई उसका उजाला खा रहा है
समय रहता हमेशा एक सा कब
इशारों में समय समझा रहा है
ये लहजा आप का लगता नहीं है
कोई है, आप से बुलवा रहा है
चमन की तो हवा ऐसी नहीं थी
फ़ज़ा में ज़ह्र भरता जा रहा है
भले मानो न मानो सच यही है
पस-ए-पर्दा कोई भड़का रहा है
वो देता लाख अपनी है सफ़ाई
भरोसा क्यों नहीं हो पा रहा है
जिसे अपना समझते हो तुम ’आनन’
तुम्हारे काम कब वो आ रहा है
-आनन्द. पाठक--
पस-ए-पर्दा = पर्दे के पीछे से
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