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ग़ज़ल 236[37 D]
तुम्हारी ज़ुल्फ़ को छू कर हवाएँ गा रहीं सरगम
तुम्हे जब देख लेती हैं नशे में झूमती हरदम
हमेशा पूछती कलियाँ बता ऎ बाग़वाँ मेरे !
चमन में कौन आता है बहारों का लिए मौसम
न कोई अब तमन्ना है, न कोई आरज़ू बाक़ी
हुए जब से हमारे तुम ख़ुशी का है इधर आलम
फ़रिश्तों ने बताया था तुम्हारी कैफ़ियत सारी
वही सच मान कर हर्फ़न इबादत कर रहे हैं हम
ज़ुबाँ जब दे दिया तुमको, निभाना जानता भी हूँ
कभी तुम आजमा लेना रहूँगा मैं सदा क़ायम
न कोई शर्त होती है, न शिकवा ही मुहब्बत में
मुहब्बत का सफ़र होता लब-ए-दम तक मेरे जानम
तसव्वुर मे , ख़यालों में, तुम्हारा मुन्तज़िर ’आनन’
मुजस्सम तुम चले आते तो मिट जाते हमारे ग़म
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
कैफ़ियत =ब्यौरा, विवरण
हर्फ़न = अक्षरश:
लब-ए-दम तक =आखिरी साँस तक
मुन्तज़िर = प्रतीक्षारत
मुजस्सम = सशरीर
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