ग़ज़ल 233[97 D]
221--2122 // 221--2122
जन्नत से है निकाला , हमको मिली सज़ा है
दिल आज भी हमारा ,उतना ही बावफ़ा है
तेरी नज़र में शायद , गुमराह हो गया हूँ
मैने वही किया है , इस दिल ने जो कहा है
जब तक नहीं मिले थे, सौ सौ ख़याल मन में
जब रूबरू हुए वो , सजदे में सर झुका है
रहबर की शक्ल में थे, किरदार रहजनों -सा
दो-चार गाम पर ही, यह कारवाँ लुटा है
ज़ाहिद की बात अपनी, रिंदो की बात अपनी
दोनों के हैं दलाइल, दोनों को सच पता है
जो कुछ वजूद मेरा, तेरी ही मेहरबानी
आगे भी हो इनायत, बस इतनी इल्तिजा है
आरिफ़ नहीं हूँ ’आनन’, इतना तो जानता हूँ
दिल में न हो मुहब्बत, फिर तो वो लापता है ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
गाम = क़दम
दलाइल = दलीलें ,तर्क [ दलील का ब0व0\
ज़ाहिद = धर्मोपदेशक
रिंद = शराबी
आरिफ़ = तत्व ज्ञानी, ध्यानी, ज्ञाता
पोस्टेड 28-05-22
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