ग़ज़ल 237 [ 02E]
122---122--122---122
मुहब्बत में अब वो इबादत कहाँ है
तिजारत हुई अब ,सदाक़त कहाँ है
जिधर से चलो तुम उधर रोशनी हो
उठा दो जो पर्दा तो जुल्मत कहाँ है
जो नाज़-ओ-अदा से खड़ी सामने हैं
वही पूछती हैं क़यामत कहाँ है
करम हो नवाज़िश, मुरव्वत, इयादत
तुम्हारी पुरानी वो आदत कहाँ है
नए दौर की यह नई रोशनी है
मुहब्बत में शिद्दत की रंगत कहाँ है
वो लैला, वो मजनूँ,वो शीरी, वो फ़रहाद
हैं पारीन किस्से ,हक़ीक़त कहाँ है
इस ’आनन’ से तुमको शिकायत बहुत है
रफ़ाक़त है तुमसे ,अदावत कहाँ है
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
जुल्मत =अँधेरा
इयादत = रोगी का हाल-चाल पूछना
पारीन = पुराने
रफ़ाक़त = दोस्ती
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