रविवार, 22 मई 2022

ग़ज़ल 239 [04 E] : इश्क़ रुस्वा नहीं हुआ होता

 ग़ज़ल 239 [04 E]


2122---1212--112/22

इश्क़ रुस्वा नहीं हुआ होता

नाम उसका न जो लिया होता


ग़ौर से देखते अगर खुद को

दिल में इक आइना दिखा होता


सोचता हूँ मैं एक मुद्दत से

तुम न होते अगर तो क्या होता


जिंदगी और भी हसीं होती

 आप का साथ जो मिला होता


आदमी में न कुछ कमी हो तो

आदमी देव बन गया  होता


हिज्र होता है क्या समझ जाते

दिल कहीं आप का लगा होता


मुन्तज़िर हूँ अज़ल से मैं ’आनन’

आखिरी दम तो वह मिला होता

-आनन्द.पाठक-


हिज्र = जुदाई ,वियोग

मुन्तज़िर =  प्रतीक्षारत




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