ग़ज़ल 369/14-A
2122---2122--2122---212
जब बनाने मैं चला था एक अपना आशियाँ
आँधियों ने धौंस दी थीं बिजलियों नें धमकियाँ
ज़िंदगी मेरी कटी हर रंग में हर रूप में
दो घड़ी तुम क्या मिले फिर उम्र भर की तल्ख़ियाँ ।
गिर पड़े तो उठ गए, जब उठ गए तो चल पड़े
राह अपनी खो गई कुछ मंज़िलों के दरमियाँ ।
यार के दीदार की चाहत में हम थे बेख़बर
हम जिधर गुज़रे उधर थीं क़ातिलों की बस्तियाँ ।
ऐश-ओ-इशरत शादमानी जब कभी हासिल हुई
अहल-ए-दुनिया बेसबब करने लगी सरगोशियाँ ।
कम नहीं यह भी कि हम ज़िंदा रहे हर हाल में
उम्र भर की फाँस थीं दो-चार पल की ग़लतियाँ ।
हार ’आनन’ ने कभी माना नहीं , लड़ता रहा
फिर उसे सोने न दीं कुछ ख़्वाब की बेताबियाँ ।
-आनन्द.पाठक-
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