शुक्रवार, 17 मई 2024

ग़ज़ल 369/ 14-A : जब बनाने मैं चला था


ग़ज़ल 369/14-A

2122---2122--2122---212


जब बनाने को चला मै एक अपना आशियाँ

आँधियों ने धौंस दी है, बिजलियों नें धमकियाँ

 

ज़िंदगी मेरी कटी हर रंग में हर रूप में

बात उनकी क्या लगी, फिर उम्र भर की तल्ख़ियाँ ।

 

गिर पड़े तो उठ गए, जब उठ गए तो चल पड़े

राह अपनी खो गई कुछ मंज़िलों के दरमियाँ ।

 

यार के दीदार की चाहत में हम थे बेख़बर

हम जिधर गुज़रे उधर थीं क़ातिलों की बस्तियाँ ।

 

ऐश-ओ-इशरत शादमानी जब कभी हासिल हुई

अहल-ए-दुनिया बेसबब करने लगे सरगोशियाँ ।

 

कम नहीं यह भी कि हम ज़िंदा रहे हर हाल में

उम्र भर की फाँस थीं दो-चार पल की ग़लतियाँ ।

 

हार ’आनन’ ने कभी माना नहीं, लड़ता रहा 

नींद उसकी ले उड़ीं कुछ ख़्वाब की बेताबियाँ ।

 

-आनन्द.पाठक-



कोई टिप्पणी नहीं: