बुधवार, 15 मई 2024

ग़ज़ल 368/13-अ : क्या मुझको समझना है


ग़ज़ल 368/13-अ

221---1222//221---1222


क्या मुझको समझना है, क्या तुमको बताना है

किरदार अधूरा है, झूठा  ये फ़साना  है ।


इस एक निज़ामत के, तुम एक अदद पुर्जा ,

नाज़िम तो नहीं ख़ुद हो, जाने ये ज़माना   है ।


तुम चाँद सितारों की बातों में न खो जाना ,

मक़्सूद न ये मंज़िल , जीने का बहाना  है ।


रुकने से कभी तेरे, दुनिया तो नहीं रुकती

यह मन का भरम तेरा, कच्चा है पुराना है ।


माना कि बहुत दूरी, हम भी न चले होंगे,

जाना है बहुत आगे, हिम्मत को जगाना है ।


हटने से तो अच्छा है, लड़ना है अँधेरों से

हर मोड़ उमीदों का , इक दीप जलाना है ।


हो काम भले मुशकिल, डरना न कभी ’आनन’

जन गण के लिए हम को, इक राह बनाना है ।


-आनन्द.पाठक-


कोई टिप्पणी नहीं: