गुरुवार, 9 मई 2024

ग़ज़ल 364/30 A: ठोकर लगी किसी को--

 



ग़ज़ल  364/30 A

221--2122   // 221---2122


ठोकर लगी किसी को, आँखें खुली किसी की 

गिर कर सँभल भी जाना, यह सीख ज़िंदगी की ।


रफ़्तार-ए-ज़िंदगी  से वह तेज दौड़ता है ,

चाहत हज़ार चाहत क्यों एक आदमी की ?


मरता था माल-ओ-ज़र पर, दुनिया से जब गया वह

इक दास्तान-ए-आख़िर, मुठ्ठी  खुली हुई की ।


परबत से, घाटियों से, चल कर यहाँ तक आई

सागर को क्या पता है, क्या प्यास इक नदी की ?


मँडरा रहें है बादल, आसार जंग के हैं ,

हर देश खौफ़ में है ,पीड़ा नई सदी की ।


सूरज कहाँ रुका है , दो-चार जुगनुओं से 

सबकॊ पता हमेशा  औक़ात रोशनी की ।


’आनन’ तमाम बातें , मालूम है तुम्हे भी , 

क्या बात मैने तुमसे, अब तक कोई नई की  ?


-आनन्द.पाठक-


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