ग़ज़ल 364 [30 A]
221--2122 // 221---2122
ठोकर लगी किसी को, आँखें खुली किसी की
गिर कर सँभल भी जाना, यह सीख ज़िंदगी की ।
रफ़्तार-ए-ज़िंदगी से वह तेज दौड़ता है ,
चाहत हज़ार चाहत क्यों एक आदमी की ?
मरता था माल-ओ-ज़र पर, दुनिया से जब गया वह
इक दास्तान-ए-आख़िर, मुठ्ठी खुली हुई की ।
परबत से, घाटियों से, चल कर यहाँ तक आई
सागर को क्या पता है, क्या प्यास इक नदी की ?
मँडरा रहें है बादल, आसार जंग के हैं ,
हर देश खौफ़ में है ,पीड़ा नई सदी की ।
सूरज कहाँ रुका है , दो-चार जुगनुओं से
सबकॊ पता हमेशा औक़ात रोशनी की ।
’आनन’ तमाम बातें , मालूम है तुम्हे भी ,
क्या बात मैने तुमसे, अब तक कोई नई की ?
-आनन्द.पाठक-
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